वरुथिनी एकादशी उपवास सोडण्याची वेळ : 06:08:12 ते 08:28:14 एप्रिल, 18
कालावधी : 2 तास 20 मिनिटे
री वासरा समाप्ती क्षण : 06:08:12 ला एप्रिल, 18
इस दिन व्रत करने वाले मनुष्य को सर्वप्रथम ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करना चाहिये। दूसरों की बुराई और दुष्ट लोगों की संगत से बचना चाहिए। इस व्रत की पूजा विधि इस प्रकार है:
1. व्रत से एक दिन पूर्व यानि दशमी को एक ही बार भोजन करना चाहिए।
2. व्रत वाले दिन प्रात:काल स्नान के बाद व्रत का संकल्प लेकर भगवान की पूजा करनी चाहिए।
3. व्रत की अवधि में तेल से बना भोजन, दूसरे का अन्न, शहद, चना, मसूर की दाल, कांसे के बर्तन में भोजन नहीं करना चाहिए। व्रती को सिर्फ एक ही बार भोजन करना चाहिए।
4. रात्रि में भगवान का स्मरण करते हुए जागरण करें और अगले दिन द्वादशी को व्रत का पारण करना चाहिए।
व्रत वाले दिन शास्त्र चिंतन और भजन-कीर्तन करना चाहिए और झूठ बोलने व क्रोध करने से बचना चाहिए।
यह व्रत बहुत पुण्यदायी होता है। धार्मिक मान्यता है कि ब्राह्मण को दान देने, करोड़ो वर्ष तक ध्यान करने और कन्या दान से मिलने वाले फल से भी बढ़कर है वरुथिनी एकादशी का व्रत। इस व्रत को करने से भगवान मधुसुदन की कृपा होती है। मनुष्य के दुख दूर होते हैं और सौभाग्य में वृद्धि होती है।
एक समय अर्जुन के आग्रह करने पर भगवान श्री कृष्ण ने वरुथिनी एकादशी की कथा और उसके महत्व का वर्णन किया, जो इस प्रकार है:
प्राचीन काल में नर्मदा नदी के तट पर मान्धाता नामक राजा का राज्य था। वह अत्यन्त दानशील और तपस्वी राजा था। एक समय जब वह जंगल में तपस्या कर रहा था। उसी समय जंगली भालू आकर उसका पैर चबाने लगा। इसके बाद भालू राजा को घसीट कर वन में ले गया। तब राजा घबराया, तपस्या धर्म का पालन करते हुए उसने क्रोध न करके भगवान विष्णु से प्रार्थना की।
राजा की पुकार सुनकर भगवान विष्णु वहां प्रकट हुए़ और चक्र से भालू का वध कर दिया। तब तक भालू राजा का एक पैर खा चुका था। इससे राजा मान्धाता बहुत दुखी थे। भगवान श्री विष्णु ने राजा की पीड़ा को देखकर कहा कि- ‘’मथुरा जाकर तुम मेरी वाराह अवतार मूर्ति की पूजा और वरूथिनी एकादशी का व्रत करो, इसके प्रभाव से भालू ने तुम्हारा जो अंग काटा है, वह अंग ठीक हो जायेगा। तुम्हारा यह पैर पूर्वजन्म के अपराध के कारण हुआ है।’’ भगवान विष्णु की आज्ञा अनुसार राजा ने इस व्रत को पूरी श्रद्धा के साथ किया और वह फिर से सुन्दर अंग वाला हो गया।